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तेरहवाँ सूक्त
भागवत संकल्पकी स्तुतिका गति
[ ऋषि भागवत संकल्पकी स्तुति करनेवाले शब्दकी शक्तिकी घोषणा करता है,-स्तुति किया गया यह संकल्पाग्नि मानवको द्युलोकका स्पर्श उपलब्ध करा देता है । शब्दके द्वारा हमारे अन्दर सम्पुष्ट यह अग्निदेव हमारे यज्ञ का पुरोहित बन जाता है और हममें दिव्य ऐश्वर्य और जयशील बलका विजेता बन जाता है । यह देवता अपनी सत्तामें अन्य सबको ऐसे धारण किये है जैसे पहियेकी नाभि अरोंको धारण करती है, इसलिये यह आध्यात्मिक आनन्दकी सारीकी सारी विविध ऐश्वर्य-सम्पदा हमारे पास ले आता है । ] १ अर्चन्तस्त्वा हवामहेऽर्चन्त: समिधीमहि । अग्ने अर्चन्त ऊतये ।।
(अर्चन्त: त्वा हवामहे) प्रकाश देनेवाले शब्दको गाते हुए हम तुझे पुकारते हैं । (अर्चन्त: समिधीमहि) ज्ञानसे आलोकित करनेवाले शब्दको गाते हुए हम तुझे प्रदीप्त करते हैं । (हे अग्ने) हे संकल्पाग्निदेव, हम (ऊतये) अपनी वृद्धिके लिये (अर्चन्त:) प्रकाशप्रद शब्दको गाते हैं । २ अग्ने: स्तोमं मनामहे सिघ्रामद्य दिविस्पृशः । देवस्य द्रविणस्यव: ।।
(अद्य) आज हम (अग्ने: देवस्य) संकल्परूप अग्निदेवकी (सिघ्रं स्तोमं) सर्वसाधक स्तुतिको (मनामहे) मनके द्वारा दृढ़तासे धारण कर लेते हैं, उस अग्निकी स्तुतिको जो (द्रविणस्यव:) हमारे लिये दिव्य सारभूत ऐश्वर्य1 चाहता है और (दिविस्पृश:) द्युलोकपुको स्पर्श करता है ३ अग्निर्जुषत नो गिरो होता यो मानुषेष्वा । स यक्षद् दैव्यं जनम् ।।
(अग्नि:) वह संकल्परूप अग्नि (न: गिर: आ जुषत) हमारे स्तुतिशब्दोंको प्रेमसे स्वीकार करे, (य: मानुषेषु होता) जो यहाँ मानवोंमें पुरोहितके रूपमे स्थित है, (स: दैव्यं जनं यक्षत्) वह दिव्य जातिके प्रति यज्ञकी भेंट दे । ___________ 1. दिव्य सम्पदाएं जो यज्ञका लक्ष्य हैं । ८४
भागवत संकल्पकी स्तुतिका गीत ४ त्वमग्ने सप्रथा असि जुष्टो होता वरेण्य: । त्वया यज्ञं वि तन्वते ।।
(अग्ने) हे संकल्परूप अग्नि ! (त्वं सप्रथा: असि) तू बहुत विस्तृत और विशाल है, (होता) हमारी भेंटका पुरोहित है, (वरेण्य:) वरणीय तथा (जुष्ट:) प्रिय है । (त्वया यज्ञं वितन्वते) तेरे द्वारा मनुष्य अपने यज्ञके स्वरूपको अत्यन्त विस्तृत करते हैं । ५ त्वामग्ने वाजसातमं विप्रा वर्धन्ति सुष्टुतम् । स नो रास्व सुवीर्यम् ।।
(अग्ने) हे संकल्पाग्ने ! (सुष्टुतं त्वा) एक बार अच्छी तरह स्तुति किये गये तुझ देवको ( विप्रा:) ज्ञान-प्रदीप्त जन (वर्वन्ति) बढ़ाते हैं जिससे कि तू (वाजसातमं) प्रचुर ऐश्वर्यको पूरी तरह जीत लेता है । इसलिए (स:) वह तू (सुवीर्यम् रास्व) हमें वीरोंका-सा पूर्ण बल प्रचुरतासे प्रदान कर । ६ अग्ने नेमिरराँ इव देवाँस्त्वं परिभूरसि । आ राधश्चित्रमृग्जसे ।।
(अग्ने) हे संकल्पशक्ति ! (नेमि: अरान् इव) जैसे रथमें पहियेका नाभिकेन्द्र अग्नेमें अरोंको रखता है उसी प्रकार (त्वं देवान् परिभू: असि) तू अपनी सत्ताके अन्दर सब देवोंको धारण किये हुए है । (राधः चित्रम् आ ऋग्जसे) तू उन ऐश्वर्योंका विविध आनन्द हमारे लिये ला । ८५
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